ज्ञान और प्रेम के संगम – स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी (श्री श्री स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि का 170वां आविर्भाव दिवस पर विशेष)

‘प्रेम ही ईश्वर है’ यह केवल किसी कवि की उद्दात कल्पना के रूप में नहीं बल्कि सनातन सत्य के रूप में। मनुष्य चाहे किसी भी धर्म या पंथ का हो …यदि वह प्रकृति द्वारा उसके हृदय में बिठाए गए इस प्रभुत्वकारी तत्त्व को उचित रूप से संवर्धित करता है तो वह माया की अंधकारमय सृष्टि में भटकने से अपने आप को निश्चित तौर पर बचा सकता है।”
एक अद्भुत पुस्तक ‘कैवल्य दर्शनम’ से उद्धृत ये शब्द, मानवजाति को माया के मजबूत शिकंजे से आजाद होने का कितना सुंदर उपाय और आश्वासन प्रदान करते हैं। इस वर्ष की भाँति आज से 131 वर्ष पूर्व 1894 के महाकुंभ में मृत्युंजय बाबाजी ने ज्ञानावतार कहलाने वाले एक ऋषि स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी को इस पुस्तक की रचना करने का आदेश दिया।
यही नहीं उसी भेंट में बाबाजी ने श्रीयुक्तेश्वरजी के गहन आध्यात्मिक अंतर्ज्ञान और जागतिक दृष्टिकोण के कारण उन्हें मुकुंद नाम के एक बालक को, श्री श्री परमहंस योगानन्द में परिवर्तित करने के लिए चुना। 10 वर्ष के गहन प्रशिक्षण को पाकर बालक मुकुंद योगानन्द बने जो पूर्व और पश्चिम के महान् संत और जगत् गुरु के रूप में जाने जाते हैं। अपने गुरु के आदेश पर ही उनसे प्राप्त मुक्तिदायक सत्यों को वितरित करने के उद्देश्य से योगानन्दजी ने पूर्व में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया तथा पश्चिम में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना की जहाँ पर इच्छुक भक्त आवेदन कर ध्यान की मुक्तिदायिनी उच्चत्तम प्रविधि, क्रियायोग को सीख सकते हैं।
अपनी पुस्तक ‘योगी कथामृत’, जो एक महान् गौरव ग्रंथ की श्रेणी में आता है, और जिसने कोटि-कोटि लोगों के जीवन को बदलने में अपनी भूमिका निभाई है, में योगानन्दजी अपने गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी के बारे में बताते हैं – “वे मितभाषी, आडंबरहीन और गंभीर थे। उनका मौन रहना उनकी अनंत ब्रह्म की गहन अनुभूति के कारण था।“
एक और स्थान पर ‘अपने गुरु के आश्रम की कालावधि’ नामक पाठ में वे कहते हैं, ”श्री युक्तेश्वरजी के पवित्र चरणों का स्पर्श करते समय मैं सदा ही रोमांचित हो उठता था….उनकी ओर से एक सूक्ष्म विद्युत धारा प्रवाहित होती थी।….मैं जब भी अपने गुरु के चरणों पर माथा टेकता था, मेरा संपूर्ण शरीर जैसे एक मुक्तिप्रदायक तेज से भर जाता था।“
अनुशासन प्रिय एवं कठोर होने के साथ-साथ, श्रीयुक्तेश्वरजी का बाल सुलभ हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। वे अपने शिष्यों को अत्यंत प्रिय थे और उन्हें बहुत प्रेम करते थे, बिना किसी अपेक्षा के। ज्ञान और प्रेम का अद्भुत संगम उनमें परिलक्षित होता था। योगानन्दजी के प्रेम के वशीभूत हो पहले ही भेंट में उन्होंने अपना सर्वस्व देने को कह दिया था। वे केवल अपने शिष्यों का योगक्षेम चाहते थे।
उन्हें किसी भी प्राणी जैसे बाघ, शेर या विषैले सांपों से कोई भय नहीं था। उसका एक कारण था, प्राणी जगत से प्रेम। यह तो सर्वविदित है कि कोई भी प्राणी अपनी रक्षा हेतु मानव पर वार करता है। यदि मानव प्रेम पूर्ण हृदय से उस जीव को आश्वासत कर दे कि वह उसका कोई अहित नहीं करेगा तो वह हिंसक नहीं होगा। श्रीयुक्तेश्वरजी ने इसी तथ्य को भली भाँति उजागर किया ।
10 मई को उनके अविर्भाव दिवस पर, ब्रह्माडीय चेतना में सदैव अपनी उपस्थिति का आभास कराने वाले इस ईश्वरतुल्य संत के आशीर्वादों को आत्मसात् करने हेतु आइए उन्हें शत-शत नमन करें। अधिक जानकारी : yssofindia.org
लेखिका – (डॉ) श्रीमती मंजुलता